२५ जून, १९५८

 

     ''वस्तुओंका स्वभाव ही ऐसा है कि सारे विकासको शुरूमें एक धीमे उन्मीलनके रूपमें बढ़ना होता है । हर नये तत्त्वको, जो अपनी शक्तियां विकसित करता है, 'निश्चेतना' और 'अज्ञान'की अंतर्लीनतामेंसे अपना रास्ता बनाना पड़ता है । उसे 'निश्चेतना'- की ओरसे आनेवाले और दबाव, उसके सहज विरोध और अवरोध तथा 'अज्ञान'के अड़ंगा लगानेवाले मिश्रण और अंधे दुराग्रही विलबनोंका सामना करते हुए अपने-आपको अंतर्लयन और आदिम माध्यमके अंधकारकी पकडमेंसे निकालने- का कठिन काम करना पड़ता है । प्रकृति शुरूमें एक अस्पष्ट प्रेरणा और प्रकृतिको स्वीकार करती है और यह इस बातका चिह्न है कि गुह्य, अंतस्तलीय निमज्जित तत्व ऊपर आनेके लिये जोर लगा रहा है । तब जो चीज होनेवाली है उसके छोटे-छोटे आधे दवे हुए संकेत, अपूर्ण आरंभ, अनगढ़ तत्त्व, प्रारंभिक रूपरंग, छोटे, नगण्य, मुश्किलसे पहचानी जा सकने वाली प्रमात्राओंके रूपमें (''क्वांटा'') होते हैं । उसके बाद छोटे-बड़े रूप आते हैं, अधिक विशिष्ट और पहचाने जा सकने- वाले गुण दिखायी देने लगते हैं, पहले यहां-वहां, अपूर्ण रूपमें या बहुत हल्के, फिर ज्यादा स्पष्ठ; ज्यादा रचनात्मक और अंतमें निर्णायक उन्मज्जन, चेतनाका उलटाव (विपर्यय), उसके आमूल परिवर्तनकी संभावनाका आरंभ । फिर भी हर दिशामें बहुत कुछ करना बाफी है । विकासके प्रयत्नके सामने पूर्णताकी ओर लंबा और कठिन मार्ग है । जो किया जा चुका है उसे दृढ़ करना है, फिरसे गिरने और नीचेकी ओर आकर्षित होनेसे असफलता और विनाशसे सुरक्षित रखना है । इतना ही नहीं, उसे उसकी संभावनाओंके सभी क्षेत्रोंमें उसकी संपूर्ण आत्मोपलब्धिकी समग्रतामें, उसकी अधिक-से-अधिक उच्चता, सूक्ष्मता, समृद्धि और व्यापकतामें खोलना है । उसे प्रभुत्वपूर्ण सर्वग्राही और व्यापक होना है । हर जगह प्रकृतिकी यही प्रक्यिा होती है और इसकी उपेक्षा करना, प्रकृति जिस आशयसे कार्य करती है उसे खो देना और उसकी कार्य-प्रणालीकी भूल-भुलैयामें खो जाना है ।',

 

('लाइफ डिवाइन', पृ० ८६२-६३)

 

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यह व्यक्तिगत विकासका बिलकुल ठीक वर्णन लगता है । यह ठीक ऐसा ही नैण । और इसीलिये व्यक्ति धैर्य खो बैठता है या हिम्मत हार जाता है क्योंकि उसे महसूस होता है कि वह आगे नहीं बढ़ रहा । लेकिन जब तुम शरीरका विकास - स्थूल (जड़) भौतिकका विकास -- करनेमें जुट जाते हों, जब तुम चाहते हो कि भौतिक देह साधना करे तो बिलकुल ऐसा ही होता है । बिना किसी सुनिश्चितता और यथार्थताके, बिना यह जाने कि कहांसे शुरू करें, तुम सब तरहकी चीजों करनेकी चेष्टा करते हों और तब तुम्हें महसूस होता है कि तुम टटोल रहे हो, ढूंढ रहे हो, चक्कर काट रहे हो पर कहीं पहुंच नही रहे । इसके बाद धीरे-धीरे, एक चीज दिखायी देती है, फिर दूसरी और बहुत देर बाद लगता है कि अब कुछ कार्यक्रम बन रहा है । और इसका वर्णन श्रीअरविन्द अंतकी तरफ करते है, जब क्रम- विकासका उद्देश्य प्रकट हो जाय और दिखायी देने लगे तो इस बातके लिये कितनी सावधानी बरतनी चाहिये कि पुन: उसे आदिम 'निश्चेतना' फिरसे लील न जाय!

 

   और इसीलिये काम.... अंतहीन लगता है । फिर मी, इसे करनेका रास्ता केवल यही है 1 जिस पथपर चलना है वह शरीरकी अम्यस्त अवस्था- तक पहुंचता है और वह है प्रायः पूर्ण निश्चेतना जिसके हम अम्यस्त हैं, क्योंकि हम है ही ''वैसे'' । और इसके बाद चेतनाका पूर्ण जागरण, सब कोषाणुओं, सब अंगों, सब क्रियाओंका प्रत्युत्तर... दोनोंके बीच श्रमकी शताब्दियां दिखती हैं । जो भी हो, यदि किसीने खुलना, अभीप्सा करना, अपनेको देना सीख लिया है, और इन्हीं सब गतियोंको शरीरमें प्रयुक्त कर सकता है, कोषाणुओंको भी वही करना सीखा सकता है तो काम अधिक तेजीसे बढ़ता है । लेकिन अधिक तेजीसे मेरा मतलब तेज नही; यह अब भी लंबा और धीमा काम है । और हर बार, जब-जब कोई तत्व रूपांतरकी गतिमें पहले शामिल नहीं हुआ, पर अब शामिल होनेके लिये जाग पड़ा है तो हमें लगता है कि सब कुछ दुबारा नये सिरेसे करना होगा -- हम जिसे मान बैठे थे कि हो चुका है उसे मी दुबारा करना होगा । पर यह सच नहीं है, तुम वही चीज दुबारा नहीं करते, यह नये तत्वमें उसी तरहकी चीज करनी होती है जिसे या तो तुम पहले भूल गये थे या उसे एक तरफ रख दिया था, क्योंकि वह तैयार नहीं थी और जो अब तैयार होकर जाग उठी है और अपना स्थान लेना चाहती है । इस तरहके बहुत-से तत्व होते हैं... ।

 

    तुम शरीरको बहुत सरल समझते हो, है न? यह एक शरीर है, यह ''मेरा'' शरीर है, आखिर है ते। एक ही रूप - परंतु यह ऐसा नहीं है!

 

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इसमें सैकड़ों सत्ताएं गुंथी हुई है । हर एक दूसरीसे बेखबर है, लेकिन सब किसी गहनतर चीजसे समन्वित हैं जिसे दे नहीं जानती, उन्हें ऐक्यका बोध केवल इसलिये है कि वे तत्वोंकी अनेकता और मित्रताके प्रति सचेतन नहीं ।

 

   तत्वतः यह अनेकता ओर भिन्नता ही, बीमारियां न सही, पर अधिकतर विकारोंको पैदा करती है । कुछ ठीक-ठाक चल रहा है, मार्ग-दर्शक सूत्र भी हाथ लग गया है, तुम अपने पथपर बढ़ रहे हो, तुम्हें लगता है कि फल मिलने हीं वाला है और फिर सहसा ठप्पा! कुछ हों जाता है, बिलकुल अप्रत्याशित, तुम्हें पता भी नहीं था कि यह वहां था. यह जग जाता है और अभियानमें माग लेनेके लिये आग्रह करता है । पर यह भयंकर उथल-पुथल मचा देता है और तुम्हें सब कुछ नये सिरेस करना पड़ता है ।

 

   अंतरकी सब सत्ताओंकी, सब प्रदेशोंकी साधना बहुत लोगोंने की है, उसे सविस्तार समझाया है, कुछने उसे क्रमबद्ध किया है, अवस्थाएं और रास्ते चिह्नित कर दिये है । तुम एक अवस्थासे दूसरी अवस्थातक चले जाते हो क्योंकि तुम्हें पता है कि यह ऐसे ही होना चाहिये, लेकिन जैसे ही तुम शरीरमें प्रविष्ट होते हो तो यह अछूते जंगलके समान है... । यहां सब कुछ करना हैं, सब कुछ संपन्न करना है, सब कुछ बनाना है । अतः तुम्हें बहुत-से धैर्य, अत्यधिक धैर्यके लैस होना होगा, यह मत सोचो कि तुम किसी कामके नहीं, क्योंकि इसमें बहुत समय लगता है । कमी हताश नहीं होना चाहिये, कमी अपनेसे यह मत कहो : ''ओह! यह मेरे लिये नहीं है ।' ' उसे हर एक कर सकता है यदि समय, साहस, सहनशीलता और आवश्यक अध्यवसायके साथ काममें जुट जाय । लेकिन ये सब अपेक्षित है । पर इन सबसे बढ़कर, सबसे बढ़कर जरूरत है कमी हिम्मत न हारनेकी, एक ही कामको दुबारा करनेके लिये, दस बार, विस बार, सौ बार करनेके लिये तैयार रहनेकी -- जबतक कि सचमुच वह पूरा न हो जाय । और यह प्राय. ही होता है कि जबतक सब कुछ नही हो जाता, काम समाप्त नहीं हो जाता, तबतक लगता रहता है कि हमने कुछ भी कह)' किया ।

 

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